Friday, August 28, 2015

* राखी की चमक *


अरे तू गुस्सा ही हुए जाएगी या सुनेगी भी ?
'खा लिया ना खाना ! राखी भी बांध दी मैंने ! अब बोल ! एकदम तसल्ली से !
मैं करीब पौने बारह बजे निकल गया था तेरी भाभी को घर ड्राप करके यहाँ आने को। ज्यों ही बाइक जे.एल.एन. पर टर्न की थोड़ी दूर पर एक पिक-अप किसी को टक्कर मार कर चली गई। एक बारगी तो सोचा कि मैं तो चलता हूँ ! पीछे मुड़ कर देखा वो अभी तक पड़ा था जमीन पर। सभी जने बचकर निकले जा रहे थे। हालत नाजुक थी। फ़टाफ़ट पी.सी.आर और एम्बुलेंस को फोन करके तुझे किया कि देर हो जाएगी। इंतजार करते हुए मैंने देखा सड़क पर बिखरे सामान में चिथड़ा हो चुका एक गिफ्ट पैकेट था। फोन पे लास्ट कॉल 'छुटकी ' नाम से था। मुझे माज़रा समझते देर नहीं लगी ! पुलिस की तफ़्तीश और एम्बुलेंस के जाने के बाद मैं स्टेचू सर्कल पे ट्रेफिक जाम में फंस गया। कोई रैली निकल रही थी। गली में मुड़ा कि मुझे एम्बुलेंस की सायरन सुनाई दिया। इतनी भीड़ भाड़ में हर किसी को देर हो रही थी। आज़ अन्य दिनों से कुछ ज्यादा ही जल्दी थी लोगों को।
' कुछ कर सकता हूँ ? ' - एम्बुलेंस के करीब जा कर मैंने ड्राइवर से पुछा !
' आप प्लीज़ यहाँ से निकलवा कर कोई शॉर्टकट बता देते ' - ड्राइवर की बेचारगी साफ़ झलक रही थी।
मैं आगे आगे चलते हुए प्रार्थना कर रहा था ' हे भगवन ! रक्षा करना इसकी। '
अस्पताल पहुँच कर पता लगा खतरे की कोई बात नहीं। हाँ, खून जरूर चढ़ाना पड़ा !
' तो तूने आज फिर ब्लड डोनेट कर दिया ?'
' तो फिर ? ' घर से उसका भाई आ गया था जिसे मैंने तेरे लिए लिया गिफ्ट यह कह कर दे आया कि यह उसकी बाइक के पास मिला था। मैंने सही किया ना ?
' हाँ ! बिलकुल सही ! मानव धर्म निभाया तूने ! इससे बेहतर और क्या हो सकता था !' वह आंसू पोछते हुए बोली।
' चल चल, अब अपना धर्म निभा ! कहाँ है मेरे रसगुल्ले का डब्बा ! '....
आज राखी की और दोनों के चेहरे की चमक कुछ और ही थी ! आज उन्होंने सबसे ऊंचे धर्म, मानव धर्म को पहचाना था !
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Saturday, August 22, 2015

सुना क्या आपने -


मोदी : 60 हज़ार दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
मोदी : 70 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
मोदी : 80 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
90 हज़ार करोड़ दूँ की ज्यादा दूँ ?
जनता : मोदी मोदी
ये जनता है की मूर्खों की भीड़ ? इन्हें नहीं पता की ये
उन्ही के खून पैसों की कमाई है ? इन्हें नहीं पता की ये
पैसा उन्हें 1 साल पहले मिल जाता तो शायद एक चूल, एक
पूल या एक सड़क अब तक बन गई होती ? इन्ही का पैसा
इन्हें ऐसे देने की बात हो रही थी जैसे भिखारी को राजा
चिढ़ा रहा हो, एक रूपये दूँ की 2 रूपये दूँ ??
( फेसबुक पर किसी का लिखा हुआ कमेंट)
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हम सोचे -
मतलब मामला सौदे का है! वह भी देश के प्रधानमंत्री द्वारा? भई वाह!
वैसे एक बात कह दें हम भी। आप मोदी जी को सही से समझे नहीं। वे देश के प्रधानमंत्री हैं, एकदम सच्चे सेवक। बिहार भी उसी देश का हिस्सा है, इतना भूगोल तो याद है उनको। अब वो किसी पार्टी वार्टी के नेता जैसा संकीर्ण सोच नहीं रखते! बिहार की जनता उनकी पार्टी को वोट दे या नितीश को, जो पैकेज का वादा किया है वो निभा कर रहेंगे। चाहे तो शाह लिख कर दे देंगे कि इस बार वाला कोई जुमला नहीं है।
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किसी का जवाब जोरदार था -
चाहें लाख लिख कर दे दें ... ससुरे करेंगे सब काम फाईलों में भी (गर जुमला न हुआ तो) ये गुजराती बनिए हैं... बिहारियों में दाल नहीं गलनी इनकी ...
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चल बुड़बक ! कौनो हम ही बुद्धु हैं का ! जब कुछ होने जाने का हैइऐ नहीं त काहे न अपनी मर्जी से वोट दें , मतबल घर का आदमी ।
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जय हो नागनाथ , i mean नागपञ्चमी की !

( sorry for delayed post )

Monday, August 10, 2015

-*- होर्न प्लीज ( ह को प पढ़ा जाये ) -*-


जिस जोरदार तरीके से सरकार द्वारा बैन किये गए 857 साइट्स का विरोध किया गया हम समझ गए आज की पीढ़ी तकनीक की पुरोधा ही नहीं बल्कि पुरातन संस्कृति की सच्ची सरमायदार भी है।  हॉर्न को हॉर्न मानने से इंकार करते हुए वात्स्यायन, कामसूत्र, खजुराओ व  कोणार्क इत्यादि के इतने सटीक उदाहरणों को उद्धरित किया कि बस्स्स्स ! हम तो निहाल ही हो गए।  तब से न जाने क्यों अपने आपको लानत मलानत भेज रहे हैं कि हमारे ज्ञान चक्षु तो अभी तलाक मूंदे ही हुए हैं ? हैं !!
ऐसा हमेशा से नहीं था।  हमारी भी एक उम्र आई थी जब ये नीली नीली दुनिया हजारों रंगो से नहाई थी। हमारे ' ये' तो आज भी देखते हैं , मगर हमारा वो काल ५-७ वर्षों में निपट गया जब हम भी सारे खिड़की दरवाज़े बंद करके उस पर परदे भी लगा कर एक आध फिल्में खींसे निपोरते , खीखीखी करते, स्क्रीन की तरफ नहीं देख रहे हैं का नाटक करते अपने आनदुत्सव के अनुभव में इज़ाफ़े कर रहे थे।  इन अनुभवों से एक बात तो तय हुई कि हार्ड कोर अपने बूते की नहीं थी। धीरे धीरे पता लगा कि हमे देखने से ज्यादा पढ़ने में मन लगता है।  बस फिर क्या था, लगा दी इनकी ड्यूटी , कुछ 'अच्छी वाली ' मैगज़ीन लाकर दो ना। 
वो दिन जाने कब हवा हुए।  ख़ैर। … अपन आज की बात करते हैं। आज हमें लत लगी है हर बात के कारणों व् नतीज़ों को तलाशने की।  

H orn (promotes)--> Prostitution Industry --> Girls forced in Prostitution --> Child Trafficking

ये सूत्र मैंने फेसबुक से कॉपी की।  बात में कुछ तो दम है। आइये देखते हैं :-
अगर हमने इन साइट्स को बैन करने  ख़िलाफ़ हैं तो यह भी स्वीकारना होगा कि  फिल्मों को प्रोडूस करने में कितना पैसा, लोग , वक़्त और टर्न ओवर है की इसे इंडस्ट्री ही कहा जाता है।  इंडस्ट्री होने के नाते -
१. हॉर्न इंडस्ट्री लिंगभेदी ( जेंडर biased ) है। फ़िल्म के कलाकारों को स्क्रीन टाइम के अनुसार न तो पे किया जाता है और न ही 'शोहरत ' में भागीदारी में न्याय।   ( जिनसे मैंने पुछा वे नाम में सनी लीओन का नाम तो बता पाये मगर पुरुष वर्ग में नाम ध्यान नहीं।  ज्यादा जोर देने पर  'सनी लियॉन का हसबैंड' .
२. समाज को हॉर्न देखने से तो गुरेज़ नहीं है मगर ऐसी फिल्मों में काम 'आती ' / काम में धकेल दी गयी लड़कियों को बदनाम/ गंदी भी कहेंगे।  जिसका नतीजा ? किडनेपिंग/ ब्लेकमेलिंग ( याद आया दिल्ली के एक नामी स्कूल का MMS आप सबको ?)
३. जो लड़कियां जाने कितनी मजबूरियों में इस व्यवसाय में कदम रखती भी हैं तो समाज की जाने किन घिनौने व्यवस्था के अंतर्गत हर एक 'गर्ल ' को एक दलाल ही बाज़ार मुहैया कराता है।  अर्थात वो दलाल बिना हींग फिटकरी लगाये खाता है ! लड़की का शरीर, उसी की मेहनत, उसी की बदनामी तो काम से काम पूरा पैसा तो मिले उसे !!
४. गर ये साइट्स इतने ही जरूरी हैं तो क्यों न प्रोस्टीटूशन को लीगल कर दिया जाये ? कम से कम आये दिन इन्हें क़ानून के रखवाले हड़काएगे तो नहीं , ब्लैकमेल तो नहीं करेंगे !
सिर्फ हॉर्न देने से क्या मतलब , रास्ता भी तो दीजिये।
                                                                 --------------------- मुखर



http://www.covenanteyes.com/2011/09/07/the-connections-between-pornography-and-sex-trafficking/

http://www.covenanteyes.com/2011/09/07/the-connections-between-pornography-and-sex-trafficking/

http://medicalkidnap.com/2015/01/29/15000-cases-of-arizona-child-porn-most-uninvestigated/


Friday, August 7, 2015

" मेरे दर्द की उम्र "


छत पर से गुजरती उदास शाम को विदा करते हुए मैं दिनभर की गतिविधियों व अरमानों की, जिनको अभी अंकुरित होना बाकी था, पोटली बना वहीं क्षितिज की डोली पर रख लौटने लगी थी... ये सांसें खारी सी क्यों महक रही थी? शायद अश्रु आँखों से नहीं हलक से नीचे उतर रहे थे...
मैंने देखा अंधेरे की ओट से कोई चेहरा उभर कर बिना आहट मेरी पोटली उठा ले गया। असमंजस सी मैं अभी अपने शब्दों को व्यवस्थित कर ही रही थी कोई प्रश्न रूप देने के लिए कि देखा मेरे अजन्मे अरमान एक एक कर कोई श्याम सी ओढ़नी पर यहां वहां टांक दिया था। इस काली सी रात में उन तारों की रौशनी देखते ही बनती थी।
मैं रह न सकी। सोने से पहले खिड़की के पर्दे हटा उसे आवाज दी - ' ऐ, तेरा नाम क्या है ?'
'चंदा! '
यथा नाम, तथा गुण! एक दम चमा चम! नींद में उतरते उतरते उसकी आकृति मेरे चेहरे पर महसूस की। और सुबह होते होते उसकी चमक मेरे आँखों में उतर आई थी।...
ये पूरे चांद और उसकी चांदनी भी ना...गोया सूरज भी क्या राह दिखाए!
...........मुखर!